रघु ठाकुर
नई दिल्ली। कहने को हम 21वीं सदी में हैं और आजादी के भी 75 वर्ष पूरे कर चुके हैं, परन्तु महिलाओं के प्रति मानसिक सोच में बहुत बदलाव नजऱ नहीं आता। इसमें कोई दो राय नहीं है कि अवसर मिलने पर महिलाओं ने अपनी योग्यता को सिद्ध किया है। भारतीय महिलायें विभिन्न क्षेत्रों में न केवल श्रेष्ठ साबित हो रही हंै बल्कि कई मामलों में तो पुरूषों से आगे छलांग लगा रही हैं। प्रशासनिक सेवाओं का क्षेत्र हो खेल या व्यापार का क्षेत्र,कार्यपालिक अधिकारियों के पद हो, सिविल सर्विसेस, नीट या अन्य परीक्षायें हो आज बेटियों के नाम ही मीडिया में सबसे ऊपर पढऩे को मिलते हैं। यह तो हुयी बात महिलाओं की योग्यता की, परन्तु महिलाओं के प्रति नजरिया पुरूष मन में बहुत बदलता नजऱ नहीं आ रहा। पढ़े-लिखे संभ्रांत वर्ग के पुरूषों और विशेषकर अधिकारियों और कर्मचारियों के हलके-फुलके क्षणों के सवालों को अगर सुना जाये तो अक्सर उन्हें कहते सुना जाता है कि होम मिनिस्ट्री को पता न लग जाये…। होम मिनिस्ट्री की सेवा में हैं और होम मिनिस्ट्री को कौन समझाये…। यह सब कथन एक प्रकार से व्यंग रूप के होते हैं।
मेरे एक अधिकारी मित्र ने जो क्लास वन अधिकारी हैं ने बताया कि उनके एक परिचित रेल के बड़े अधिकारी कुछ दिनों पूर्व सेवानिवृत्त हुये हैं। हमने उनसे हालचाल पूछा कि कैसे समय कटता है तो उन्होंने उत्तर दिया कि मैं तो घर का टी.ए.डी.के. बन गया हूं। दरअसल, रेलवे में जो बंगला प्यून की प्रथा रही है वह अब तकनीकी रूप से बंद हो गयी। और अधिकारियों ने कुछ नया तकनीकी नाम देकर जिसे टी.ए.डी.के. कहा जाता है उसका विकल्प खोज लिया है। यानि यह बंगले के चपरासी का ही परिवर्तित नाम है। और उन अधिकारी का यह कहना था कि वह अपनी पत्नी के बंगला प्यून जैसे बन गये हैं…। बहुत संभव है कि उनकी सुशिक्षित पत्नी उनसे कुछ घरेलू काम काज में सहयोग की अपेक्षा रखने लगी हो, क्योंकि अब उनके पास कोई काम नहीं है, बल्कि पर्याप्त खाली समय है। उन्हें उस चाहे गये घरेलू काम के सहयोग को करना लाचारी होगी…। कम से कम यह तो निश्चित ही है कि वह अपने स्वेच्छा भाव से यह काम नहीं कर रहे हैं। उनके मन में नारी के प्रति एक छोटे होने का भाव है। और ऐसे संवाद और चर्चायें अमूमन सुनने को मिलती है, कहा जा सकता है कि यह हास्य विनोद है परन्तु हास्य विनोद भी कहीं न कहीं अंतर मन में छिपे भाव से जन्म लेता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मसंविदा पत्रों पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत सरकार ने भी महिलाओं के हित के लिये अनेक कदम उठाये हैं। ‘बेटी बढ़ाओ बेटी पढ़ाओ’ ‘लाड़ली लक्ष्मी योजना’ बच्चियों को शिक्षा में विशेष सुविधायें प्रदान करना शादी विवाह में मदद करना आदि ऐसे अनेक कदम उठाये हैं जिनसे नारी सशक्किरण हुआ है। पर अभी भी समाज में नारी समता के लिये संघर्ष कर रही है और अपना स्थान बनाने का प्रयास कर रही है। परन्तु क्या पुरूष मन अभी बदला है? क्या उसने इस बदलावों को मन से स्वीकार किया है ? यह कहना अभी भी कठिन लगता है, क्योंकि आये दिन समाचार पत्रों में जो समाचार आ रहे हैं वह इसी आशय को सिद्ध करते हैं। लैंगिक समानता के मामले में विश्व आर्थिक मंच की रपट को अगर माना जाये तो भारत 146 देशों में से 127 वें स्थान पर है। यानि हम लैंगिक समानता के मामले में अभी भी बहुत पीछे है। हालांकि रपट यह भी कहती है कि भारत इसके पहले 135वें स्थान पर था। अब आठ सीढ़ी ऊपर चढ़कर 127वें नम्बर पर आया है। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं हम पाकिस्तान से बेहतर हैं। पाकिस्तान तो 142वें पायदान पर है और हम 127वें स्थान पर। परन्तु ऐसे निष्कर्ष निकालना आत्मसंतोषी ही होगा। इस रपट के अनुसार बंगलादेश 59वीं पायदान पर है जबकि बंगलादेश भी एक इस्लामिक देश है और आमतौर पर लोगों की धारणा रहती है कि महिलाओं को इस्लाम में बराबरी नहीं है। श्रीलंका 115वें स्थान पर, नेपाल 116वें स्थान पर, चीन 107वें स्थान पर एवं भूटान 103वें स्थान पर है। यानि एशिया देशों में भारत शायद पाकिस्तान को छोड़कर बकाया सभी से बहुत पीछे है। इस रपट के मुताबिक जन्म के लिंग अनुपात में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि हुयी है, परन्तु इस वृद्धि से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि इतने सरकारी सुविधाओं,प्रचार के बावजूद एवं फि ल्म मीडिया के द्वारा हो रही हलचल के बाद भी पुरूष और स्त्री, लड़का व लड़की के बीच का फ र्क दिमाग से मिटा है ?
हाल ही में 21 जून को हेमन्त डोलिया और उनकी पत्नी पूजा डोलिया ने बेटियों के जन्म के लिये परिवार की प्रताडऩा से परेशान होकर जहर पी लिया। यह घटना कोई गांव की भी नहीं बल्कि मध्य प्रदेश के बम्बई कहे जाने वाले इंदौर शहर की है। पूजा डोलिया टिमरनी की रहने वाली थी। इसकी दो बेटियां थी उसने अपने मामा को फ ोन पर कहा कि हेमन्त के यानि पति के माँ-बाप व बड़े भाई परेशान करते हैं व बेटी को मारते हैं….। बेटियों के होने पर टार्चर भी करते हैं…। 28 जून 2023 के अखबारों में, ग्वालियर की एक घटना दर्ज है, जिसमें नीतू नामक महिला को उसके पति ने बुरी तरह मारा क्योंकि उसने दो बेटियों को जन्म दिया था…। अब उसमें नीतू का क्या कुसूर था… यह समाज की सच्चाई है। कहा जा सकता है कि ये घटनायें अपवाद हैं। परन्तु यह भी विचारणीय है कि चूंकि यह घटनायें इंदौर व ग्वावलियर में हुयी थी, इसलिये मीडिया में प्रमुखता से स्थान पा सकीं। अन्यथा ग्रामीण दूरस्थ अंचलों में कितनी ऐसी घटनायें घट रही हैं, जहां बेटियों को जन्म देने के अपराध में नारी का जीवन, अपमान, त्रासदी, और पीड़ाओं से भर जाता है। अगर पहली संतान बेटा हुआ तो घर वाले और यहां तक कि समाज के लोग भी उसे ऐसे शान से बताते हैं जैसे लड़के की पत्नी ने कोई ओलम्पिक पदक जीत लिया हो। अगर ईमानदारी से चिकित्सक लोग जानकारी देकर बतायें कि कितने पति-पत्नी या महिलायें उनके पास भ्रूण परीक्षणों के लिये आती है तथा उस आधार पर बच्चे को जन्म नहीं देती तो आंकड़ा बहुत भारी होगा। भू्रण हत्या कानून की सख्ती के चलते यह जांच पड़ताल गर्भधारण के शुरूआती दो-तीन माह में होने लगी है ताकि भू्रण बनने के पहले ही उससे मुक्ति पा ली जाये, जो कृतिम गर्भधारण हो रहे हैं उनमें भी अधिकांशत: को बेेटों की ही चाहत होती है। एक महत्वपूर्ण खबर 22 जून के अखबारों में आई थी पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की बेटी सुचेतना भट्टाचार्य लिंग परिवर्तन कराकर सुचेतन बनना चाहती है। उनका कहना था कि उनका मन अपने आपको पुरूष समझता है। इसलिये वे शारीरिक रूप से पुरूष बनना चाहती है। उन्होंने यह भी कहा कि लोग उन्हें सुचेतन कहे। आखिर इस इच्छा के पीछे कारण क्या है? वे अपने आपको पुरूष मन में क्यों देखती हैं और क्या यह नारी के मन की छिपी हीन ग्रन्थि का ही एक विपरीत रूप नहीं है? आज 21 वीं सदी में भी बेटियों को जातियों के बंधनों से जकड़कर रखा जाता है। मैं कितने ही ऐसे परिवारों को निजी रूप से जानता हूं जहां दहेज के अभाव में, गोरे-रंग के अभाव में, आर्थिक रूप से कमजोर घर के कारण या अन्य कारणों से बेटियों की शादी नहीं हो पाती। वे आजीवन रूप से अविवाहित ही रह जाती हैं। अगर वह अपने मन से प्रेम व शादी करती है तो ऑनर किलिंग के मामले सामने आते है। पहले तो जाति श्रेष्ठता के नाम पर ऑनर किलिंग हो रही थी अब तो जातियों के भीतर भी छोटे-बड़े के आधार पर ऑनर किलिंग हो रही है। अंतरजातीय या धर्म के नाम पर शादी करने पर बेटियों को मौत के घाट उतार दिया जाता है तथा तथाकथित सामाजिक प्रतिष्ठा बचायी जाती है। विशेषकर ग्रामीण व मध्यम श्रेणी परिवारों में ऐसी घटनायें अभी भी घट रही है।
भारत में सामान्य महिला श्रमिकों की आय में थोड़ी सी वृद्धि हुयी है। परन्तु इसमें सरकार की भूमिका नहीं है बल्कि समाज के नये बन रहे है ढांचे में, मध्यवर्गीय परिवारों में, अब घरेलू काम वाली महिलाओं की आवश्यकता वढ़ी है और यह आवश्यकता कुछ हद तक मध्यवर्गीय परिवारों की लाचारी जैसी बन रही है। क्योंकि जहां पति-पत्नी दोनों काम करते हैं या पति का वेतन काफ ी अच्छा है वहां उनकी महिलायें हाथ से काम नहीं करना चाहती है और उनकी निर्भरता श्रमिक महिलाओं पर बढ़ी है। घरों में झाड़ू लगाना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना, ऐसे अनेक कार्य महिला श्रमिक कर रही है और इसलिये उनके वेतन में कुछ वृद्धि हुयी है, परन्तु सरकारी और कंपनियों के तकनीकी कामों में, प्रशासनिक कामों में, महिलाओं की भागीदारी और आमदनी कम हो रही है। चूंकि स्थाई महिला कर्मियों को कई प्रकार की सुविधायें शासन के द्वारा और कानून के द्वारा देने के निर्णय हुये है। वैश्विक स्तर पर भी ऐसे कदम उठाये जा रहे हैं इसलिये अब उद्योग जगत और अन्य क्षेत्रों के लोग महिलाओं के लिये कम रखना चाहते हैं। भारत में अभी तक महिला सांसदों की संख्या 15.1 प्रतिशत हुयी है। जबकि आबादी 50 प्रतिशत के आसपास है। लगभग 35 वर्षों से महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की मांग हमारे देश में चल रही है परन्तु यह कानून संसद पारित नहीं कर सका। जबकि संसद के लगभग सभी दलों के चुनावी घोषणा पत्रों में कई दशकों से महिला आरक्षण के वायदे कहे गये है पर करना कोई दल नहीं चाहता। महिला उत्पीडऩ, लैंगिक असमानता, महिला आरक्षण, महिलाओं की हिस्सेदारी व उनके योग्यता के अनुसार अवसर के लिये उन्हें स्वत: आगे आना होगा। अपने अधिकार के लिये खड़ा होना होगा, लडऩा होगा, व अधिकार लेना होगा वरना समाज आसानी से महिलाओं को समता का अधिकार नहीं देगी। कहने को हमारी संस्कृति में लोग कहते हैं कि नारी देवी स्वरूप है यह भी कहते है कि जहां नारी का सम्मान नहीं होता वहां देवताओं का वास नहीं होता। परन्तु देवताओं के जमाने से लेकर आज तक नारी भेदभाव और विषमता का शिकार होती रही है।
हमारे ज्ञान की देवी सरस्वती है परन्तु समाज में महिलाओं की शिक्षा की शुरूआत और विशेषत: आम समाज में 18वीं सदी में श्रीमती सावित्री बाई फु ले और ज्योतिबा फुले ने की थी। जिसके लिये उन्हें अपमानित भी होना पड़ा और कष्ट भी सहन करने पड़े। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देवी दुर्गा शक्ति का पर्याय है परन्तु भारतीय सेना में प्रवेश की अनुमति और विशेषत: थल, नौसेना एवं वायुसेना में लडऩे के पदों की अनुमति कुछ वर्ष पूर्व भारत के सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मुश्किल से मिली थी। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है, सेनाओं के शीर्ष अधिकारी महिलाओं को इन महत्वपूर्ण स्थानों पर रखने के पक्ष में नहीं थे और उन्होंने सरकार से लेकर न्यायपालिका तक विरोध किया था। वैसे तो सम्पत्ति की देवी लक्ष्मी है, परन्तु लगभग 19वीं सदी के मध्य तक पुरूष मजदूर की मजदूरी ज्यादा होती थी और महिला मजदूर की कम होती थी। देश में अरबपतियों की संख्या काफ ी बढ़ी है परन्तु इन अरबपतियों में अपनी योग्यता या पहल से अरबपति महिलाओं की संख्या नगण्य है। अरबपति पुरूष की पत्नी होने के नाते उनकी कुछ हिस्सेदारी हो सकती है क्योंकि वह सांपत्तिक विरासत मिलना उनका कानूनी अधिकार है। श्रीमती नीता अंबानी, श्रीमती सुधा मूर्ति, श्रीमती अदाणी और ऐसे ही अन्य नाम गिनाये जा सकते है जो पत्नी होने के कारण अरबपति हैं। हाल ही में प्रकाशित हुरून ग्लोबल रिच रिपोर्ट के अनुसार देश में जो 57 अरबपति सेल्फ मेड हैं, उनमें से केवल 3 महिलायें ही है सेल्फ मेड अरबपति हैं, शेष 54, अपने पति या परिवार के कारण अरबपति हैं। और इन तीन महिलाओं की संयुक्त संपत्ति से केवल 3 पुरूष अरबपतियों की संपत्ति 14 गुना ज्यादा है। भारत के शीर्ष 50 सेल्फमेड अरबपतियों में एक भी महिला नहीं है। इसलिये अब महिलाओं को घर से लेकर दफ्तर और सड़क से लेकर संसद तक खुद अपना झंडा उठाना होगा।