लखनऊ। कहां तो अशोक गहलोत गांधी परिवार के ‘छाया उम्मीदवार’ के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष बनने चले थे और कहां एक ही दिन में खलनायक, बग़ावती, विद्रोही बनकर सामने आये हैं। कांग्रेस आलाकमान की प्रतिष्ठा और उसके इकबाल की धज्जियां उड़ा दी गयी हैं। पार्टी नेतृत्व की नाक में दम कर दिया गया है। पार्टी के भीतरी लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। बेशक कोई स्वीकार करे अथवा न करे, गहलोत ने परोक्ष रूप से और उनके समर्थक विधायकों ने साफ तौर पर गांधी परिवार, यानी आलाकमान, को ठेंगा दिखा दिया है। कांग्रेस के भीतर यह अपने किस्म की अभूतपूर्व घटना है।
राजस्थान के विधायकों ने कांग्रेस नेतृत्व के पर्यवेक्षकों-मल्लिकार्जुन खडगे और अजय माकन-से मिलना भी जरूरी नहीं समझा। खाली हाथ लौटे पर्यवेक्षकों ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को विस्तार से खुलासा भी कर दिया और लिखित रपट भी सौंप दी, लेकिन कांग्रेस आलाकमान चुप है। सवाल नेतृत्व के अपमान और उसे खुली चुनौती देने का था, फिर भी गहलोत को अध्यक्ष पद के चुनाव के अयोग्य घोषित नहीं किया गया। अलबत्ता खडगे, मुकुल वासनिक, दिग्विजय सिंह और केसी वेणुगोपाल आदि के नये नाम सामने आये हैं कि अध्यक्ष पद की रेस में वे भी शामिल हैं। उन्हें भी गांधी परिवार का ‘वफादार’ आंका जा रहा है। गहलोत भी पुराने वफादार माने जाते थे, लेकिन वह मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपके रहना चाहते हैं।बहरहाल 30 सितंबर तक इंतज़ार करना पड़ेगा कि कांग्रेस अध्यक्ष के दावेदार कौन हैं ? यदि यह इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का दौर होता, तो अशोक गहलोत के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा चुकी होती! दरअसल मोदी कालखंड के दौरान कांग्रेस लगातार कमज़ोर हुई है। बल्कि टूटती और बिखरती रही है। उसके कई बड़े नेता पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। गुलाम नबी आज़ाद ने तो अपनी पार्टी की घोषणा भी कर दी है-डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी। राजस्थान के संदर्भ में भी कोई बड़ा विवाद नहीं था। गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लडऩे के मद्देनजर मुख्यमंत्री पद छोडऩा था। गहलोत की इच्छा थी कि सचिन पायलट के अलावा किसी भी विधायक को मुख्यमंत्री बना दिया जाए। पायलट खेमे पर 2020 में बग़ावत करने और सरकार गिराने की कोशिश करने के आरोप चस्पा हैं। गहलोत उन्हें सार्वजनिक तौर पर निकम्मा, नकारा और धोखेबाज कहते रहे हैं। कांग्रेस आलाकमान इस बार पायलट को मुख्यमंत्री बनाने और उनके नेतृत्व में ही 2023 में विधानसभा चुनाव लडऩे का प्रयोग करने के पक्ष में लग रहा था। गहलोत समर्थक 90 से ज्यादा विधायकों की शर्तनुमा मांग थी कि 19 अक्तूबर के बाद ही नया कांग्रेस अध्यक्ष नया मुख्यमंत्री तय करे। विधायक वन-टू-वन की जगह समूह में ही केंद्रीय पर्यवेक्षकों से मुलाकात और बात करने के पक्षधर थे। विरोधाभास, हितों के टकराव, विधायकों की शर्तों और समानांतर विधायक दल की बैठक को पर्यवेक्षकों ने ‘अनुशासनहीनता’ करार दिया, नतीजतन पूरे प्रकरण को गहलोत की बग़ावत माना गया। अब गहलोत बनाम पायलट नहीं, बल्कि गहलोत बनाम गांधी परिवार की स्थिति है। कांग्रेस आलाकमान के सामने क्या विकल्प हैं ?क्या गांधी परिवार, यानी कांग्रेस नेतृत्व, इस ‘नाफरमानी’ को बर्दाश्त करेगा? क्या गहलोत को मुख्यमंत्री पद भी छोडऩे को बाध्य करेगा? तो सरकार और पार्टी का क्या होगा? दरअसल कांग्रेस अब बिल्कुल बेनकाब हो चुकी है कि वह ‘भारत जोडऩेÓ की यात्रा कर रही है, लेकिन पार्टी ही उसके नियंत्रण में नहीं है और वह लगातार टूट रही है। कांग्रेस में विमर्श हुआ था कि देश को जोडऩे वाली यात्रा और कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से उसकी सामाजिक, राजनीतिक, सांगठनिक स्थिति बदल सकती है, लेकिन अब और भी कबाड़ा होना तय है। गहलोत पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेताओं की जमात में आते हैं। राजस्थान में कांग्रेस सरकार भी है। जो गलती पंजाब में की गई थी, उसे ही लगभग दोहराया जा रहा है। बग़ावती विधायकों को अभी नोटिस तक जारी नहीं किया गया है। हाईकमान को डर है कि बगावत और व्यापक न हो जाए, लिहाजा नेतृत्व समझौतापरक है। कांग्रेस में यथास्थिति भी बनी रह सकती है।