19 जनवरी 1990 धोखे का वो दिन है जिसकी कहानी सुनकर हर कोई सहम गया

तमाम कहानियां हैं कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी पंडितों के प्यार की. पर 1980 के बाद माहौल बदलने लगा था. रूस अफगानिस्तान पर चढ़ाई कर चुका था. अमेरिका उसे वहां से निकालने की फिराक में था. लिहाजा अफगानिस्तान के लोगों को मुजाहिदीन बनाया जाने लगा. ये लोग बगैर जान की परवाह किये रूस के सैनिकों को मारना चाहते थे. वह इंसान के रूप में हैवान लोग जिनकी ट्रेनिंग पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में होने लगी। ऐ दरिंदे आस पास के लोगो से नजदीकियां बढ़ाने लगे इन सबको प्रेणा मिली क्रूर पाकिस्तानी जनरल शासक ज़िया से, ऐसा शासक जिसकी क्रूरता और हैवानियत बढ़ती जा रही थी. ऐसे लोगो पर जब कारवाही हुई तो कई बेगुनाह हिन्दू मुसलमान भी फास गए और धर्म के तथा कथित ठेकेदारों को मौका मिल गया और वे कश्मीरी काफिर अर्थार्थ कश्मीरी पंडितों को वहा से नीकालने का सोच लिया जिनकी संख्या उनकी तुलना में बहुत काम थी लगभग 5-7 प्रतिशत उनमे ज्यादातर जज, डॉक्टर, पुलिस और सिविल सर्वेंट थे और वे आसानी से नजर आ जाते थे, तो धर्म के ठेकेदारों का टारगेट आसान हो गया. अपराधी लोग इनमे पहले ही शामिल हो चुके थे और लोगो को रेडिकलाइज किया जाने लगा जहा कश्मीरी पंडित सदियों से रह रहे थे उन्हें घर छोड़ने का फरमान जारी कर दिया गया। कुछ आस पास के लोगो ने स्पोर्ट क्या परन्तु बाद में यूनिटी के डर ने माहौल ही बदल दिया और उन्हें घर छोड़ने के लिए मजबूर किया. बसों में ब्लास्ट होने लगे बिना वजह गोलियां चलने लगी. ऐसा नहीं था की इसमें सिर्फ हिन्दू ही मरते थे दोनों कॉम के लोगो के मौत होती थी लेकिन आतंक के सौदागरों ने उनकी मौत को दबा दिया और यही शोर होने लगा की पंडितो को यहाँ से जाना है। और इसी दौरान छीन के पायी हुई सत्ता से बने मुख्या मंत्री गुलाम मुहमद शाह के एक फैसले ने मनो आग में घी डालने का काम कर दिया. जम्मू के न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक पुराने मंदिर को गिराकर भव्य शाह मस्जिद बनाने का फैसला लिया. ऐ समय था 1986 तो लोगो ने ने इसका विरोध किया। जवाब में कट्टरपंथियों ने नारा दे दिया कि इस्लाम खतरे में है. इसके बाद कश्मीरी पंडितों पर धावा बोल दिया गया. जोर इस बात पर रहता था कि प्रॉपर्टी लूट ली जाए. हत्यायें और रेप तो आम बात थी. नतीजन 12 मार्च 1986 को राज्यपाल जगमोहन ने शाह की सरकार को दंगे न रोक पाने की नाकामी के चलते बर्खास्त कर दिया.

1987 में चुनाव में कट्टरपंथियों की हार हुई अतः समाज सन्ति चाहता था. जुलाई 1988 में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट बना. कश्मीर को भारत से अलग करने के लिए. कश्मीरियत अब सिर्फ मुसलमानों की रह गई. पंडितों की कश्मीरियत को भुला दिया गया. 14 सितंबर 1989 को भाजपा के नेता पंडित टीका लाल टपलू को कई लोगों के सामने मार दिया गया. हत्यारे पकड़ में नहीं आए. ये कश्मीरी पंडितों को वहां से भगाने को लेकर पहली हत्या थी. इसके डेढ़ महीने बाद रिटायर्ड जज नीलकंठ गंजू की हत्या की गई. गंजू ने जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी. गंजू की पत्नी को किडनैप कर लिया गया. वो कभी नहीं मिलीं. वकील प्रेमनाथ भट को मार दिया गया. 13 फरवरी 1990 को श्रीनगर के टेलीविजन केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या की गई. ये तो बड़े लोग थे. साधारण लोगों की हत्या की गिनती ही नहीं थी. इसी दौरान जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किये गये थे. क्यों? इसका जवाब नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकार ने कभी नहीं दिया.

4 जनवरी 1990 को उर्दू अखबार आफताब में हिज्बुल मुजाहिदीन ने छपवाया कि सारे पंडित कश्मीर की घाटी छोड़ दें. अखबार अल-सफा ने इसी चीज को दोबारा छापा. चौराहों और मस्जिदों में लाउडस्पीकर लगाकर कहा जाने लगा कि पंडित यहां से चले जाएं, नहीं तो बुरा होगा. इसके बाद लोग लगातार हत्यायें औऱ रेप करने लगे. कहते कि पंडितो, यहां से भाग जाओ, पर अपनी औरतों को यहीं छोड़ जाओ – हमें पाकिस्तान चाहिए. पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ. गिरजा टिक्कू का गैंगरेप हुआ. फिर मार दिया गया. ऐसी ही अनेक घटनाएं हुईं. पर उनका रिकॉर्ड नहीं रहा. किस्सों में रह गईं. एक आतंकवादी बिट्टा कराटे ने अकेले 20 लोगों को मारा था. इस बात को वो बड़े घमंड से सुनाया करता. जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट इन सारी घटनाओं में सबसे आगे था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 60 हजार परिवार कश्मीर छोड़कर भाग गये. उन्हें आस-पास के राज्यों में जगह मिली. जान बचाने की. कहीं कोई इंतजाम नहीं था. 19 जनवरी 1990 को सबसे ज्यादा लोगों ने कश्मीर छोड़ा था. लगभग 4 लाख लोग विस्थापित हुए थे. हालांकि आंकड़ों के मुताबिक अभी लगभग 20 हजार पंडित कश्मीर में रहते हैं.

विस्थापित परिवारों के लिए तमाम राज्य सरकारें और केंद्र सरकार तरह-तरह के पैकेज निकालती रहती हैं. कभी घर देने की बात करते हैं. कभी पैसा. पर इन 27 सालों में मात्र एक परिवार वापस लौटा है. क्योंकि 1990 के बाद भी कुछ लोगों ने वहां रुकने का फैसला किया था. पर 1997, 1998 और 2003 में फिर नरसंहार हुए थे. हालांकि कश्मीर के मुसलमानों और रुके हुए पंडितों के बीच प्यार की कई कहानियां सामने आती हैं. पर सच यही है कि जिस प्रॉपर्टी पर लोगों ने कब्जा कर लिया है, उसके प्यार को इस प्यार से बदला नहीं जा सकता. लौटने की कोई गुंजाइश नहीं है. हालांकि नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2015 में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए 2 हजार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की थी. पर इतने लोगों का इससे क्या ही होगा. कितने फ्लैट मिलेंगे और कितनी नौकरियां बटेंगी. सबसे बड़ी बात कि अपराधियों के बारे में कोई बात नहीं होती है. सब चैन की नींद काट रहे हैं. किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई.

ये सारी बातें किसी धर्म के दूसरे धर्म के प्रति नफरत को नहीं दिखाती हैं. ये बातें है किसी भी मैजॉरिटी की, जो कि कंट्रोल खो देने पर माइनॉरिटी के लिए कहर बन जाती हैं. देश के बाकी हिस्सों में कई जगहों पर हिंदू बहुसंख्यक थे. वहां पर मुसलमानों और सिखों को झेलना पड़ा. कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक थे, तो हिंदुओं को झेलना पड़ा. सरकार हर जगह की घटना में असहाय बनी रही. हमेशा यही लगता है कि सरकारी सिस्टम लोगों को बचा पाने में नाकाम है. अगर ध्यान से देखें तो इन मामलों को तुरंत ठीक किया जा सकता है.

Leave a Reply

Your email address will not be published.