माननीय! ओपिनियन पोल हवाओं के रूख नहीं पलटा करते

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   रेखा पंकज

लखनऊ। भारत में चुनाव महज सरकार चुनने की कवायद के तौर पर नहीं, बल्कि महोत्सव की तरह ही ट्रीट किये जाते है। राजनीतिक विश्लेषक, ज्योतिषी, असंतुष्ट नेता, मीडिया, सटोरिये…यहां तक कि छोटे-छोटे दल तक इस उत्सव में भाग लेकर इसका भरपूर फायदा उठा लेना चाहते हैं। ऐसा मौका चूका तो अगले पांच साल तक इसकी कसक बैचेन करती रहती है। फिर ऐसे में भला ओपनियन पोल या एग्जिट पोल करने-करवाने वालों को इस उत्सव को भुनाने से कैसे और क्यों रोका जाए ? बात का आरंभ हाल ही में विभिन्न समाचार चैनल द्वारा दिखाए जा रहे ओपिनियन पोल को लेकर समाजवादी पार्टी की आपत्ति दर्ज कराने से करते है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त को पत्र लिखकर तत्काल प्रभाव से इस पर रोक लगाने की अपील की है। पटेल ने पत्र में कहा है कि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए तारीखों की घोषणा के बाद से कई चैनल ओपिनियन पोल दिखा रहे हैं जिससे मतदाता भ्रमित हो रहे हैं और चुनाव प्रभावित हो रहा है। यह कार्य आदर्श आचार संहिता का खुला उल्लंघन है। आपत्ति निराधार भी नहीं। सपा जहां अपनी स्थिति जीत में देख रही वहीं ये पोल भाजपा को हर सर्वे में जीत दिखा रहे।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ओपिनियन पोल फिक्स होते हैं। ऐसे पोल सर्वे करवाने के लिए भारी पैसा लगता है जो कोइ भी सर्वे करने वाली संस्था अपने फंड से नहीं करना चाहेगी। जाहिर है पोल करवाने वाले हायर करने वाली पार्टी के मनमुताबिक नतीजों को प्रभावित करते हैं। कुछ समय पूर्व एक टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में दावा किया गया कि अखबारों, वेबसाइट्स और न्यूज चैनल्स पर दिखाए जाने वाले ओपिनियन पोल्स सही नहीं होते। इस ऑपरेशन के दौरान चैनल के रिपोर्टर्स ने सी-वोटर, क्यूआरएस, ऑकटेल और एमएमआर जैसी ११ कंपनियों से संपर्क किया। स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया है कि कंपनियों के अधिकारी पैसे लेकर आंकड़ों को इधर-उधर करने को राजी हो गए हैं। स्टिंग के अनुसार कंपनियां मार्जिन ऑफ एरर के नाम पर आंकड़ों में घालमेल करती हैं। इस चैैनल का दावा है कि सी-फोर समेत देश की ११ नामी ओपिनियन पोल कंपनियां इस तरह का फर्जी काम कर रही हैं। इस ऑपरेशन के बाद इंडिया टुडे समूह ने सी-वोटर के साथ करार निलंबित कर दिया था। हालांकि, नीलसन एकमात्र ऐसी कंपनी है, जिसने पैसे लेकर भी नतीजे बदलने से इनकार कर दिया।

जिस समय एमएस गिल मुख्य चुनाव आयुक्त थे उस समय पहली बार भारत में चुनाव आयोग ने 1997 को एग्जिट और ओपिनियन पोल्स पर राजनैतिक पार्टियों से बैठक की थी। उस समय इस बैठक में अधिकतर राष्ट्रीय और राज्यों की पार्टियों ने कहा था कि यह पोल्स अवैज्ञानिक होते हैं और इनकी प्रकृति और आकार के साथ भेदभाव किया जाता है। 1998 को लोकसभा चुनाव सहित गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव हुए। जिसके बाद चुनाव आयोग ने 14  फरवरी और 7  मार्च को आर्टिकल 324 के तहत गाइडलाइंस जारी कर अखबारों, न्यूज चैनल पर एग्जिट और ओपिनियन पोल्स छापने या दिखाने पर पाबंदी लगा दी। इस गाइडलाइंस का प्रेस और मीडिया ने विरोध किया और चुनाव आयोग के निर्देश को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने मामले को सुना, लेकिन आयोग की गाइडलाइंस पर रोक नहीं लगाई। इस तरह से केवल 1998 के लोकसभा चुनावों में ही एक महीने तक एग्जिट और ओपिनियन पोल्स पर पाबंदी लगी रही।

2004 में चुनाव आयोग इसी मुद्दे पर 6 राष्ट्रीय पार्टियों और 18 राज्य पार्टियों के समर्थन के साथ कानून मंत्रालय के पास पहुंचा। आयोग का कहना था कि लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए और आयोग द्वारा तय एक समय के दौरान एग्जिट और ओपिनियन पोल्स पर रोक लगाई जानी चाहिए। सिफारिशों को मानते हुए फरवरी 2010 में सिर्फ एग्जिट पोल्स पर पाबंदी लगा दी गई। उस वक्त कांग्रेस ने ओपिनियन पोल को गोरखधंधा,तमाशा और मनगढंत करार दिया वहीं भाजपा का कहना था कि ऐसा करना न तो संवैधानिक रूप से स्वीकृति योग्य है, न ही वांछनीय है।साल 2004 में सर्वे एजेंसियों के अनुसार भाजपा की सरकार इंडिया शाइनिंग के नारे के साथ सरकार बना रही थी लेकिन परिणाम एकदम उलट आया। वैसे ही 2007 में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में ओपिनियन और एक्जिट पोल में भाजपा को 92-100 सीटें, जबकि कांग्रेस को 77-85 सीटें बतायी जा रही थी, लेकिन भाजपा को 120 सीटें मिली थी.2012 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सर्वे एजेंसियों ने समाजवादी पार्टी को 127 से 135 सीटें बताई थी, जबकि उन्हें 224 सीटें मिलीं जो कि सर्वे से कहीं ज्यादा थी। ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जिससे यह पता चलता है कि ओपिनियन पोल के आंकलन अधिकांषतः गलत साबित होते रहे है।

सच तो यह है कि भारत में मतदाता के मिजाज को भांपना बेहद मुश्किल है। अभी मतदाता जो सोच के बैठा है वहीं सोच उस की मतदान के दिन ईवीएम बटन दबाने तक बनी रहे, येे जरूरी नहीं। तात्कालिक परिस्थ्तिियां बहुत हद तक बड़ा उलटफेर कर जाती है। एक गलत बयान, कार्यकर्ताओं-नेता की एक बेजा हरकत किसी भी पार्टी का बेड़ा गर्क करने को काफी होती है। यकीनन घबराहट दोनों तरफ तारी है। इसका फायदा उठाने वाले उठा रहे और इधर जनता इस मौसम का भरपूर मजा ले रही। सच तो ये है कि हवा किधर की भी हो ओपिनियन पोल से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

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